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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आज गया में करेंगी पिंडदान: परंपरा, आस्था और राजनीति का संगम

भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आज बिहार के गया पहुंच रही हैं। यह केवल एक आधिकारिक दौरा नहीं, बल्कि गहरी आस्था और भारतीय परंपरा से जुड़ा एक अहम क्षण है। राष्ट्रपति मुर्मू पितृपक्ष के अवसर पर विष्णुपद मंदिर में अपने पूर्वजों के लिए पिंडदान और तर्पण करेंगी। यह घटना सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आधुनिक भारत में परंपरा और संस्कृति की जीवंतता का प्रतीक भी है।
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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आज गया में करेंगी पिंडदान: परंपरा, आस्था और राजनीति का संगम

गया और पिंडदान की ऐतिहासिक महत्ता

गया हजारों वर्षों से पिंडदान की वैश्विक राजधानी माना जाता है। मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से आत्माओं को मोक्ष की प्राप्ति होती है। विष्णुपद मंदिर, जहाँ राष्ट्रपति यह अनुष्ठान करेंगी, भगवान विष्णु के पदचिह्न से जुड़ा हुआ है। यह स्थल न सिर्फ हिंदू आस्था का केंद्र है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर का भी एक अहम हिस्सा है।

हर साल पितृपक्ष में लाखों श्रद्धालु गया पहुंचते हैं। इनमें आमजन से लेकर राजनीतिक हस्तियाँ और राष्ट्राध्यक्ष तक शामिल होते रहे हैं। राष्ट्रपति मुर्मू का यहां पिंडदान करना इस परंपरा को और भी ऐतिहासिक बना देता है।

राष्ट्रपति का व्यक्तिगत और सामाजिक संदेश

राष्ट्रपति मुर्मू की यह यात्रा दो स्तरों पर महत्वपूर्ण है—

  1. व्यक्तिगत आस्था: आदिवासी समुदाय से आने वाली राष्ट्रपति मुर्मू ने हमेशा अपने सांस्कृतिक और धार्मिक जुड़ाव को आत्मीयता से निभाया है। उनका पिंडदान करना यह संदेश देता है कि भारत की विविध परंपराएँ एक साझा धरोहर हैं।

  2. सामाजिक और राजनीतिक संदेश: जब देश की सर्वोच्च संवैधानिक पदाधिकारी परंपरा से जुड़कर आमजन की आस्था में सहभागी होती हैं, तो यह लोकतंत्र और संस्कृति के संगम की अनूठी तस्वीर प्रस्तुत करता है।

सुरक्षा और तैयारियाँ

गया में राष्ट्रपति के आगमन को लेकर सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए हैं। चप्पे-चप्पे पर पुलिस बल की तैनाती है। शहर के ट्रैफिक रूट बदले गए हैं ताकि श्रद्धालुओं और आम नागरिकों को कम से कम परेशानी हो। प्रशासन ने व्यवस्था को सुचारु रखने के लिए विशेष प्लान तैयार किया है।

संपादकीय दृष्टिकोण

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का गया में पिंडदान करना यह साबित करता है कि आधुनिक लोकतंत्र और प्राचीन परंपराएँ विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। ऐसे अवसर भारत की सांस्कृतिक ताकत और सामाजिक एकता को नए सिरे से परिभाषित करते हैं।
यह घटना हमें याद दिलाती है कि प्रगति का अर्थ परंपराओं से दूरी बनाना नहीं है, बल्कि उनके साथ आधुनिकता का संतुलन साधना है।

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