OBC आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई: केंद्र ने 50% सीमा हटाने का किया समर्थन



केंद्र सरकार का तर्क: "समय बदल चुका है"
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अपने पक्ष में जोरदार दलील दी। सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि:
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27% OBC आरक्षण संविधान और सामाजिक न्याय दोनों की मांग है।
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1992 में तय 50% सीमा आज के सामाजिक ढांचे में बाधा बन चुकी है।
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देश के विभिन्न राज्यों में OBC आबादी 50% से भी अधिक है, लेकिन उन्हें पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं मिल पाती।
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यदि सीमा बरकरार रहती है, तो समान अवसर (Equal Opportunity) और वास्तविक प्रतिनिधित्व दोनों बाधित होंगे।
सरकार ने यह भी कहा कि “सामाजिक न्याय केवल कागज़ी प्रावधानों से नहीं मिलेगा, बल्कि इसे व्यावहारिक रूप से लागू करना होगा।”
याचिकाकर्ताओं की चिंता: "मेधा और समानता पर प्रहार"
वहीं दूसरी ओर, याचिकाकर्ताओं और सामान्य वर्ग के प्रतिनिधियों ने सुप्रीम कोर्ट में चिंता जताई। उनका कहना है कि –
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50% सीमा हटाने से मेधा-आधारित चयन का सिद्धांत कमजोर होगा।
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सामान्य वर्ग के युवाओं के लिए अवसर और भी कम हो जाएंगे।
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यह संविधान में वर्णित समानता के अधिकार (Equality before Law) का उल्लंघन है।
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आरक्षण का दायरा बढ़ाने से “सामाजिक विभाजन” और गहराएगा।
उनका कहना है कि संविधान में आरक्षण को “अपवाद” के रूप में रखा गया था, न कि सामान्य नियम के रूप में।
ऐतिहासिक और कानूनी पृष्ठभूमि
भारत में आरक्षण की सीमा पर बहस नई नहीं है।
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Indra Sawhney (1992) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षण 50% से अधिक नहीं होना चाहिए। केवल “विशेष परिस्थितियों” में अपवाद संभव है।
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M. Nagaraj (2006) – आरक्षण के लिए प्रमाणिक आंकड़े (Quantifiable Data) की अनिवार्यता तय की गई।
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Janhit Abhiyan (2022) – 50% सीमा को फिर से बरकरार रखा गया, लेकिन राज्यों को “साक्ष्य आधारित” अपवाद की छूट दी गई।
इन सभी फैसलों में अदालत ने साफ किया कि क्रीमी लेयर का अपवाद OBC आरक्षण में अनिवार्य रहेगा। यानी जो सामाजिक और आर्थिक रूप से सक्षम हैं, उन्हें लाभ से बाहर रखा जाएगा।
राष्ट्रीय असर: नौकरियों और शिक्षा पर बड़ा प्रभाव
अगर सुप्रीम कोर्ट 50% की सीमा हटाने का रास्ता खोलता है, तो इसका असर पूरे देश की नीतियों पर पड़ेगा।
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सरकारी नौकरियां: OBC कोटे के बढ़ने से भर्ती प्रक्रियाओं में बड़ा बदलाव आएगा।
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उच्च शिक्षा: विश्वविद्यालयों और संस्थानों में प्रवेश का समीकरण बदल जाएगा।
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स्थानीय चुनाव: कई राज्यों में पंचायत और नगर निकाय आरक्षण भी प्रभावित होंगे।
कुछ प्रमुख राज्य जहां असर तुरंत दिखेगा:
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मध्य प्रदेश: 27% OBC कोटे की मांग, कुल आरक्षण 63% तक पहुँच सकता है।
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महाराष्ट्र: मराठा आरक्षण को लेकर विवाद पहले से जारी है।
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बिहार: जातीय जनगणना के बाद OBC और EBC समूहों की नई मांगें तेज़।
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तमिलनाडु: पहले से ही 69% आरक्षण लागू, जिसे 9वीं अनुसूची में डाला गया है।
सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि
सुनवाई के बीच सोशल मीडिया पर भी बहस छिड़ी हुई है। OBC समुदाय के लोग #SocialJustice और #OBCReservation जैसे हैशटैग चला रहे हैं। मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में जहां OBC आबादी 55% तक है, वहां लोग सीधे मुख्यमंत्री मोहन यादव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टैग कर रहे हैं।
राजनीतिक रूप से भी यह सुनवाई अहम है। चुनावी माहौल में कोई भी दल OBC समुदाय को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। यदि सुप्रीम कोर्ट सीमा हटाने की अनुमति देता है, तो यह 2025–26 के चुनावी नैरेटिव को पूरी तरह बदल सकता है।
आगे क्या?
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला यह तय करेगा कि भारत में आरक्षण का ढांचा कैसे बदलेगा। क्या 50% सीमा स्थायी रूप से हट जाएगी या अदालत फिर से “विशेष परिस्थिति” का ही रास्ता अपनाएगी?
एक ओर जहां समर्थक इसे “सामाजिक न्याय की जीत” बता रहे हैं, वहीं विरोधी इसे “मेधा पर आघात” मान रहे हैं।
लेकिन इतना तय है कि यह फैसला भारतीय लोकतंत्र और सामाजिक संरचना दोनों पर गहरा असर डालेगा।
निष्कर्ष
OBC आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई केवल कानूनी बहस नहीं है, बल्कि यह भारत के सामाजिक ताने-बाने, राजनीति और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला मोड़ है। अगर 50% की सीमा हटती है, तो यह ऐतिहासिक बदलाव होगा, जो आने वाले दशकों तक देश की नीतियों और चुनावी गणित दोनों को परिभाषित करेगा।

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